ये दौर-ए-अहल-ए-हवस है करम से काम न ले जफ़ा से काम ले ज़ालिम वफ़ा का नाम न ले गिला सितम का नहीं मुझ को सिर्फ़ ख़ौफ़ ये है ज़माना तुझ से कहीं मेरा इंतिक़ाम न ले ज़माना उस को मिरी याद ख़ुद दिला देगा वो लाख मुझ को भुला दे वो मेरा नाम न ले मज़ा तो जब है कि ऐ सब्र-ओ-ज़ब्त-ए-इश्क़ इक दिन वो ख़ुद सलाम करे जो मिरा सलाम न ले न कर ज़रा भी तवज्जोह ख़ता-ए-दुश्मन पर इक इंतिक़ाम है ये भी कि इंतिक़ाम न ले दिल-ए-तबाह जो होना था वो तो हो ही गया ज़माना कुछ भी कहे तू तो उन का नाम न ले वो क्या निगाह जो मरहून-ए-जाम ही रक्खे वो हाथ क्या है जो गिरते हुओं को थाम न ले तिरी निगाह से पी ले जो एक बार ऐ दोस्त तमाम उम्र वो फिर मय-कशी का नाम न ले उसी के दर पे झुकाए रहेंगे सर को 'शमीम' ये देखना है वो कब तक करम से काम न ले