ये दुनिया जब रि’आयत माँगती है हर इक तोहफ़े की क़ीमत माँगती है तुम्हें जल्दी पड़ी है शाहज़ादी मोहब्बत एक मुद्दत माँगती है बिला-अस्बाब ख़ुशियाँ चाहता हूँ मगर तस्कीन रिश्वत माँगती है पिघल के आ रही है बर्फ़ नीचे ये बस्ती अब इजाज़त माँगती है उठो मायूसियों के पर टटोलो कोई परवाज़ शफ़क़त माँगती है हुकूमत ख़ुद नहीं चलती है लेकिन चलाने की लियाक़त माँगती है कसाओ रूह पर करते ही रहिए वगरना ये फ़ज़ीलत माँगती है ग़ज़ल कैसी भी तुम 'फ़रहान' कह दो बिल-आख़िर ये समा'अत माँगती है