ये फैलती शिकस्तगी एहसास की तरफ़ दरिया रवाँ-दवाँ हैं मिरी प्यास की तरफ़ उस का बदन झुका हुआ पत्थर की बेंच पर अपने क़दम भी मुड़ते हुए घास की तरफ़ दिखला रही है धूप बशाशत का आइना और छाँव खींचती है मुझे यास की तरफ़ अशिया की लज़्ज़तों में अटकता हुआ बदन और रूह का खिंचाव है बन-बास की तरफ़ सब ये समझ रहे थे कि निरवान मिल गया चकरा रही है चील मगर मास की तरफ़