ये फ़ज़ीलत मिरे मे'यार से कम है शायद आँख से ख़ून न टपका अभी नम है शायद वो मिरा हो नहीं पाया सो घुला जाता हूँ एक 'अर्से से मिरे दिल में ये ग़म है शायद वो जिसे मारने वाला है ज़माना सारा उस के हाथों में सदाक़त का 'अलम है शायद कौन समझाए ये 'उक़्दा कि ऐ बस्ती वालो ज़ुल्म ख़ामोशी से सह लेना सितम है शायद ऐसे मा’रूफ़ बड़े लोगों में ग़ज़लें कहना ख़ालिक़-ए-नुत्क़-ओ-क़लम का ये करम है शायद