ये ग़ज़ब बैठे-बिठाए तुझ पे क्या नाज़िल हुआ उठ चला दुनिया से क्यूँ तू तुझ को ऐ दिल क्या हुआ शक्ल ही ऐसी बनाई है तिरी अल्लाह ने मत ख़फ़ा हो गर हुआ मैं तुझ पे माइल क्या हुआ इन दिनों हालत तिरी पाता हूँ मैं अपनी सी यार ख़ूब-रू तुझ सा कोई तेरे मुक़ाबिल क्या हुआ ऐ बुत-ए-खूँ-ख़्वार इक ज़ख़्मी तिरे कूचे में था सो कई दिन से ख़ुदा जाने वो घायल क्या हुआ ज़ंग हो कर क़ैस का दिल कारवाँ-दर-कारवाँ नित ये कहता है कि वो लैला का महमिल क्या हुआ फ़िक्र-ए-मरहम मत करो यारो ये बतलाओ मुझे जिस के हाथों मैं हुआ ज़ख़्मी वो क़ातिल क्या हुआ था जिगर तो टुकड़े टुकड़े बर में क्यूँ तड़पे है तू क्यूँ दिला तेग़-ए-जफ़ा से तू भी बिस्मिल क्या हुआ रंजिशें ऐसी हज़ार आपस में होती हैं दिला वो अगर तुझ से ख़फ़ा है तू ही जा मिल क्या हुआ अपने बेगाने सभी हैं मत उठा महफ़िल से यार गर किसी ढब से हुआ याँ मैं भी दाख़िल क्या हुआ देखते ही तेरी सूरत मुझ को ऐ आईना-रू सख़्त हैरत है कि पहलू में नहीं दिल क्या हुआ सोच रह रह कर यही आता है ऐ 'जुरअत' मुझे ख़ल्क़ करने से मिरे ख़ालिक़ को हासिल क्या हुआ