ये हिज्र ये लम्हे फ़ुर्क़त के इस तौर हमें तड़पाएँ तो इस आग में जलते जलते हम ऐ यार कहीं जल जाएँ तो कैसा है तकल्लुफ़ महफ़िल में आते भी नहीं जाते भी नहीं हम आस लगाए बैठे हैं पर्दा वो ज़रा सरकाएँ तो उम्मीद-ब-दिल रिंदान-ए-तलब हाथों में पियाला थामे हैं मयख़ाने में उन के मर जाएँ वो आँख से मय बरसाएँ तो ख़ामोश है बुलबुल गुलशन में है बाद-ए-बहारी भी साकित जुम्बिश तो करें लब उन के ज़रा ख़ल्वत से वो कुछ फ़रमाएँ तो अक्सर ही तसव्वुर करते हैं इस रात का आलम क्या होगा आहट न करें वो चुपके से पहलू में मिरे आ जाएँ तो तेरी ही बदौलत तो अपनी रातों का सुकूँ बर्बाद हुआ ऐसे में तुझे हम जज़्बा-ए-दिल घबरा के अगर दफ़नाएँ तो किस को है ख़बर इस दुनिया में 'कौसर' है कहाँ जन्नत है कहाँ दुनिया के ये रहबर आ के ज़रा ये राज़ हमें समझाएँ तो