ये हम को कौन सी दुनिया की धुन आवारा रखती है कि ख़ुद साबित-क़दम रह कर हमें सय्यारा रखती है अगर बुझने लगें हम तो हवा-ए-शाम-ए-तन्हाई किसी मेहराब में जा कर हमें दोबारा रखती है चलो हम धूप जैसे लोग ही उस को निकाल आएँ सुना है वो नदी तह में कोई मह-पारा रखती है हमें किस काम पर मामूर करती है ये दुनिया भी कि तर्सील-ए-ग़म-ए-दिल के लिए हरकारा रखती है कभी सर फोड़ने देती नहीं दीवार से 'ताबिश' ये क्या दीवानगी है जो हमें नाकारा रखती है