ये हम पर लुत्फ़ कैसा ये करम क्या बदल डाले हैं अंदाज़-ए-सितम क्या ज़माना हेच है अपनी नज़र में ज़माने की ख़ुशी क्या और ग़म क्या जब उस महफ़िल को हम कहते हैं अपना फिर उस महफ़िल में फ़िक्र-ए-बेश-ओ-कम क्या नज़र आती है दुनिया ख़ूब-सूरत मिरे साग़र के आगे जाम-ओ-जम क्या जबीं है बे-नियाज़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ दर-ए-बुत-ख़ाना क्या सेहन-ए-हरम क्या तिरी चश्म-ए-करम हो जिस की जानिब उसे फिर इम्तियाज़-ए-बेश-ओ-कम क्या मिरे माह-ए-मुनव्वर तेरे आगे चराग़-ए-दैर क्या शम-ए-हरम क्या निगाह-ए-नाज़ के दो शोबदे हैं 'अज़ीज़' अपना वजूद अपना अदम क्या