ये इम्तिहाँ की घड़ी है ग़ज़ल का साज़ उठा अना पे आन पड़ी है ग़ज़ल का साज़ उठा घटा उमड़ के जो बरसों थमी थी आँखों में बरस वो आज पड़ी है ग़ज़ल का साज़ उठा पिरो के अश्क गुंथे शे'र हो गई लो ग़ज़ल ये मोतियों की लड़ी है ग़ज़ल का साज़ उठा जिसे तलाश न पाया कोई तसव्वुर में उसी से आँख लड़ी है ग़ज़ल का साज़ उठा सफ़र में ज़ीस्त के साए ग़ज़ल के साथ रहें अगरचे धूप कड़ी है ग़ज़ल का साज़ उठा थका है लाख मुसाफ़िर सफ़र तमाम सही अभी भी उम्र पड़ी है ग़ज़ल का साज़ उठा तुझे जहान की हर इक ख़ुशी मिलेगी 'नया' ग़मों की भीड़ खड़ी है ग़ज़ल का साज़ उठा