ये इश्क़ अगर ऐसा पुर-असरार न होता मंसूर कभी कोई सर-ए-दार न होता ज़ंजीर-ज़नी होती न हर साँस में मेरी दिल दर्द का ऐसे जो अलम-दार न होता फिर चाँद नहीं करता कभी अश्क-फ़िशानी गर टूटे सितारों का अज़ादार न होता कुछ रिश्तों को मैं साथ कभी रख नहीं पाती मुझ में जो अगर कोई अदाकार न होता इस दिल में तिरा अक्स फ़रोज़ाँ नहीं रहता गर शीशा मिरे दिल का चमकदार न होता मैं ख़ुद को कई बार बना लेती अभी तक गर लम्स मुझे तेरा ये दरकार न होता गर उस पे तिरा भेद खुला होता ऐ साक़ी फिर शैख़ को मय-ख़ाने से इंकार न होता फिर ख़ाक मज़ा देता बरसता हुआ सावन इस रुत में अगर हिज्र का आज़ार न होता सद-शुक्र कि ऐबों पे मिरे पर्दा पड़ा है क्या होता अगर मेरा वो सत्तार न होता हर चंद कि पत्थर हूँ मगर टूट रही हूँ ऐ काश तू पत्थर का तलबगार न होता