ये जब्र-ए-ज़िंदगी न उठाएँ तो क्या करें तड़पें मगर तड़पने न पाएँ तो क्या करें अब अपनी महफ़िलों से भी आती है बू-ए-ग़ैर जाएँ तो क्या करें जो न जाएँ तो क्या करें क़िस्मत में अपनी सुब्ह की अब रौशनी कहाँ अश्कों के भी दिए न जलाएँ तो क्या करें कितनी ही रातें जाग के आँखों में काट दीं बेदारियाँ भी ख़्वाब दिखाएँ तो क्या करें वो रंग-ओ-बू के क़ाफ़िले रस्ते हों जिन के बंद दीवार-ए-बाग़ फाँद न पाएँ तो क्या करें काँटों के दिन भी फिर गए रास आ गई बहार छीनी गईं गुलों की क़बाएँ तो क्या करें गिरता है हर पलक के झपकने पे इक हिजाब आँखों को इंतिज़ार सिखाएँ तो क्या करें हर रौशनी 'सिराज' चराग़-ए-हरम नहीं इस सत्ह पर निगाह को लाएँ तो क्या करें