ये जज़्बा-ए-तलब तो मिरा मर न जाएगा तुम भी अगर मिलोगे तो जी भर न जाएगा ये इल्तिजा दुआ ये तमन्ना फ़ुज़ूल है सूखी नदी के पास समुंदर न जाएगा जिस ज़ाविए से चाहो मिरी सम्त फेंक दो मुझ से मिले बग़ैर ये पत्थर न जाएगा दम-भर के वास्ते हैं बहारें समेट लो वीरानियों को छोड़ के मंज़र न जाएगा यूँ ख़ुश है अपने घर की फ़ज़ाओं को छोड़ कर जैसे वो ज़िंदगी में कभी घर न जाएगा उस को बुलंदियों में मुसलसल उछालिए लेकिन वो अपनी सतहा से ऊपर न जाएगा शहर-ए-मुराद मिल भी गया अब तो क्या 'हयात' मायूसियों का दिल से कभी डर न जाएगा