ये जो अल्फ़ाज़ को महकार बनाया हुआ है एक गुल का ये सब असरार बनाया हुआ है सोच को सूझ कहाँ है कि जो कुछ कह पाए दिल ने क्या क्या पस-ए-दीवार बनाया हुआ है पैर जाते हैं ये दरिया-ए-शब-ओ-रोज़ अक्सर बाग़ इक सैर को उस पार बनाया हुआ है शौक़-ए-दहलीज़ पे बे-ताब खड़ा है कब से दर्द गूँधे हुए हैं हार बनाया हुआ है ये तो अपनों ही के चर्कों की सुलग है वर्ना दिल ने हर आग को गुलज़ार बनाया हुआ है तोड़ना है जो तअल्लुक़ तो तज़ब्ज़ुब कैसा शाख़-ए-एहसास पे क्या बार बनाया हुआ है जाँ खपाते हैं ग़म-ए-इश्क़ में ख़ुश ख़ुश 'आली' कैसी लज़्ज़त का ये आज़ार बनाया हुआ है