ये जो हर लम्हा मिरी साँस है आती जाती एक तूफ़ान है सीने में उठाती जाती मौजें उठ उठ के तह-ए-आब चली जाती हैं हाँ मगर किस की है तस्वीर बनाती जाती ये शजर जिस के सबब रक़्स है करता रहता काश वो बाद-ए-सबा दिल को नचाती जाती बस वही क़ीमती इक शय जो मिरा हासिल थी हर घड़ी पास ही रहती न यूँ आती जाती कम से कम संग-ए-सर-ए-राह तो होता 'कौसर' और दुनिया मुझे ठोकर भी लगाती जाती