ये जो इंसाँ ख़ुदा का है शहकार इस की क़िस्मत पे है ख़ुदा की मार मर्ग-ए-दुश्मन की आरज़ू ही सही दिल से निकले किसी तरह तो ग़ुबार नाम बदनाम हो चुका हज़रत कीजिए अब तो जुर्म का इक़रार इत्तिफ़ाक़ी है दो दिलों का मिलाप कौन सुनता है वर्ना किस की पुकार जीना मरना है बन पड़े की बात न ये आसान और न वो दुश्वार किस को पर्वा कि उन पे क्या गुज़री ज़िंदगी से जो हो गए बेज़ार मुल्तफ़ित ख़ुद न हो अगर कोई आह बे-सूद और फ़ुग़ाँ बेकार पुर-सुकूँ नींद चाहते हो 'नज़ीर' साथ लाना था क़िस्मत-ए-बेदार