ये जो नंग थे ये जो नाम थे मुझे खा गए ये ख़याल-ए-पुख़्ता जो ख़ाम थे मुझे खा गए कभी अपनी आँख से ज़िंदगी पे नज़र न की वही ज़ाविए कि जो आम थे मुझे खा गए मैं अमीक़ था कि पला हुआ था सुकूत में ये जो लोग महव-ए-कलाम थे मुझे खा गए वो जो मुझ में एक इकाई थी वो न जुड़ सकी यही रेज़ा रेज़ा जो काम थे मुझे खा गए ये अयाँ जो आब-ए-हयात है इसे क्या करूँ कि निहाँ जो ज़हर के जाम थे मुझे खा गए वो नगीं जो ख़ातिम-ए-ज़िंदगी से फिसल गया तो वही जो मेरे ग़ुलाम थे मुझे खा गए मैं वो शो'ला था जिसे दाम से तो ज़रर न था प जो वसवसे तह-ए-दाम थे मुझे खा गए जो खुली खुली थीं अदावतें मुझे रास थीं ये जो ज़हर-ए-ख़ंदा-सलाम थे मुझे खा गए