ये जो तरतीब से बना हुआ मैं एक मुद्दत में रास्ता हुआ मैं लोग आते थे देखने मुझ को ऐसे पत्थर से आईना हुआ मैं क्या ख़बर कब नज़र में आ जाऊँ शोर में एक बोलता हुआ मैं अब तो पहचान में नहीं आता तेरी दीवार से जुड़ा हुआ मैं शहर के बीच आ गया इक दिन सहन के बीच दौड़ता हुआ मैं आप भी अपना शौक़ फ़रमाएँ जाने कितनों का हूँ डसा हुआ मैं शाम होती है तो निकलता हूँ उस की पलकों से चीख़ता हुआ मैं