ये कैसा नश्शा है मैं किस अजब ख़ुमार में हूँ तू आ के जा भी चुका है मैं इंतिज़ार में हूँ मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं मैं अपने घर में हूँ या मैं किसी मज़ार में हूँ दर-ए-फ़सील खुला या पहाड़ सर से हटा मैं अब गिरी हुई गलियों के मर्ग-ज़ार में हूँ बस इतना होश है मुझ को कि अजनबी हैं सब रुका हुआ हूँ सफ़र में किसी दयार में हूँ मैं हूँ भी और नहीं भी अजीब बात है ये ये कैसा जब्र है मैं जिस के इख़्तियार में हूँ 'मुनीर' देख शजर चाँद और दीवारें हवा ख़िज़ाँ की है सर पर शब-ए-बहार में हूँ