या सब्र हो हमीं को उस तर्फ़ जो न निकलें या अपने घर से बन बन ये ख़ूब-रू न निकलें होती नहीं तसल्ली दिल को हमारे जब तक दो-चार बार उस के कूचा से हो न निकलें दिल ढूँढने चले हैं कूचे में तेरे अपना डरते हैं आप को भी हम वाँ से खो न निकलें कोई भी दिन न गुज़रा ऐसा कि उस गली से ज़ख़्मी हो मुब्तला हो जो एक दो न निकलें दिल और जिगर लहू हो आँखों तलक तो पहुँचे क्या हुक्म है अब आगे निकलें कहो न निकलें बस्ती में तो दिल अपना लगता नहीं कहो फिर सहरा की तर्फ़ क्यूँकर ऐ नासेहो न निकलें गर वो नक़ाब उठा दे चेहरे से तो 'हसन' फिर कुछ ग़म नहीं मह-ओ-मेहर आलम में गो न निकलें