ये कैसा शहर है मैं किस अजाइब-घर में रहता हूँ मैं किस की आँख का पानी हूँ किस पत्थर में रहता हूँ वो ख़ुशबू इस तअ'ल्लुक़ से बहुत बेचैन सी होगी मैं काँटा था मगर इक फूल के बिस्तर में रहता हूँ उसे इक दिन यही ख़ाना-बदोशी ख़ुद बताएगी मैं अपने घर में रहता हूँ कि उस के घर में रहता हूँ अगर मोहलत मिले तो क़ातिलान-ए-शहर से पूछूँ मैं किस की जान हूँ क्यूँ सीना-ए-ख़ंजर में रहता हूँ मुझे ये बे-पनाही कब तिरा रस्ता दिखाएगी तिरी आवाज़ हूँ और गुम्बद-ए-बे-दर में रहता हूँ ये सब ख़ुश-पोश चेहरे हो चुके हैं मुन्कशिफ़ मुझ पर मैं उन के दरमियाँ क्यूँ जामा-ए-महशर में रहता हूँ ख़ुदी क्या चीज़ है 'ख़ुरशीद-अकबर' और ख़ुदा क्या है कहूँ मैं किस ज़बाँ से दस्त-ए-आहन-गर में रहता हूँ