ये क़र्ज़-ए-कज-कुलही कब तलक अदा होगा तबाह हो तो गए हैं अब और क्या होगा यहाँ तक आई है बिफरे हुए लहू की सदा हमारे शहर में क्या कुछ नहीं हुआ होगा ग़ुबार-ए-कूचा-ए-व'अदा बिखरता जाता है अब आगे अपने बिखरने का सिलसिला होगा सदा लगाई तो पुर्सान-ए-हाल कोई न था गुमान था कि हर इक शख़्स हम-नवा होगा कभी कभी तो वो आँखें भी सोचती होंगी बिछड़ के रंग से ख़्वाबों का हाल क्या होगा हुआ है यूँ भी कि इक उम्र अपने घर न गए ये जानते थे कोई राह देखता होगा अभी तो धुँद में लिपटे हुए हैं सब मंज़र तुम आओगे तो ये मौसम बदल चुका होगा