ये कौन मेरी तिश्नगी बढ़ा बढ़ा के चल दिया कि लौ चिराग़-ए-दर्द की बढ़ा बढ़ा के चल दिया ये मेरा दिल ही जानता है कितना संग-दिल है वो कि मुझ से अपनी दोस्ती बढ़ा बढ़ा के चल दिया बिछड़ के उस से ज़िंदगी वबाल-ए-जान हो गई वो दिल में शौक़-ए-ख़ुद-कुशी बढ़ा बढ़ा के चल दिया करूँ तो अब मैं किस से अपनी वुसअत-ए-नज़र की बात वो मुझ में हिस्स-ए-आगही बढ़ा बढ़ा के चल दिया न दीद की उमीद अब न लुत्फ़-ए-नग़्मा-ए-विसाल कि लय वो साज़-ए-हिज्र की बढ़ा बढ़ा के चल दिया वो आया 'अकबर' इस अदा से आज मेरे सामने कि इक झलक सी ख़्वाब की दिखा दिखा के चल दिया