ये काएनाती ज़ेहानत का दौर है भाई यहाँ ख़ुदा का तसव्वुर कुछ और है भाई सुनाओ कैसे हो कैसे हैं चाँद पर हालात ज़मीन पर तो वही ज़ुल्म-ओ-जौर है भाई कोई पलक भी झपकता नहीं तमाशे में मदारियों का तिलिस्माना तौर है भाई वतन की सुब्ह से हिजरत की रात दूर नहीं हिरा से चंद क़दम ग़ार-ए-सौर है भाई तुम्हें तो इज़्न-ए-सफ़र मिल चुका मुबारक हो हमारा नाम अभी ज़ेर-ए-ग़ौर है भाई जो काएनात की छत से नज़र करो 'शाहिद' वहाँ से आलम-ए-हैरत ही और है भाई