ज़हानत ने नई दुनिया की बोतीक़ा मुरत्तब की कहानी हाशिए पर जा चुकी शाइ'र के मंसब की तिरी ये गोल दुनिया तो कुआँ है मौत का या-रब मैं चकराया तवाज़ुन में तो पाई दाद कर्तब की न जाने आँख ने क्या देख कर तौसीअ' उसे दी है वगर्ना ख़्वाब की मुद्दत तो पूरी हो चुकी कब की सबा ख़ुशबू को आँधी गर्द को आगे बढ़ाती है यहाँ सब फ़िक्र फैलाते हैं अपने अपने मकतब की हमारी कहकशाँ के वस्त में तारीक रौज़न है इसी में महव होती जा रही है रौशनी सब की मैं उन से सुरमई सुब्हों की तमसीलें निचोड़ूँगा लगी हैं हाथ कुछ परछाइयाँ भीगी हुई शब की फ़लक से काम के मंज़र कशीद इक रोज़ कर लूँगा ज़मीं से अख़्ज़ कर लूँगा फ़ज़ाएँ अपने मतलब की मिलेंगी दो तमन्नाएँ तो हासिल कुछ नया होगा कि अज्ज़ा से अलग होती है ख़ासिय्यत मुरक्कब की हमारा ज़ौक़-ए-नक़्क़ाशी नहीं है आज का प्यारे ज़बाँ तश्कील के ग़ारों में थी ये लहर है तब की कहीं ज़र्रे को अपनी मौज में उड़ता हुआ देखो तो शायद तुम समझ पाओ हयात आज़ाद-मशरब की नहीं मालूम किस शमसी फ़ज़ा के पास से गुज़रा चमक बढ़ने लगी इम्कान के दुम-दार कौकब की सियाही फैल कर दिल से जबीं तक आन पहुँची है बदल दी हैं मुसलसल सर-कशी ने सूरतें सब की गुज़र जूँही फ़रामोशी के दरिया से हुआ मेरा वहीं अपनी सुराही आब-ए-निस्याँ से लबालब की