ये ख़्वाब और भी देखेंगे रात बाक़ी है अभी तो ऐ दिल-ए-ज़िंदा हयात बाक़ी है मिरे लहू में अभी तर्क-ए-इश्क़ के बा-वस्फ़ वो गर्मी-ए-निगह-ए-इल्तिफ़ात बाक़ी है अभी तो ज़ौक़-ए-तलब में कमी नहीं आई अभी मिरा सफ़र-ए-बे-जिहात बाक़ी है जो हो सके तो शहादत-गह-ए-नज़र में आ ये देख इश्क़ में कितना सबात बाक़ी है ये काएनात अभी एक इंतिज़ार में है कि होने वाली कोई वारदात बाक़ी है ख़ुद अपनी राख से तू जी उठे शरर की तरह ये मो'जिज़ा अभी ऐ काएनात बाक़ी है शब-ए-विसाल में दिन भी मिला न लें ऐ दोस्त कि रात ख़त्म हुई और बात बाक़ी है हुई है शाख़-ए-हुनर में नई नुमू अब के 'सलीम' बर्ग-ए-ख़िज़ाँ से नजात बाक़ी है