ये ख़ज़ाना दिल-ए-सौदाई किसे देता मैं उस की बख़्शिश थी ये तन्हाई किसे देता मैं इस तिरे अह्द के रोते हुए लोगों में से हाकिम-ए-वक़्त ये शहनाई किसे देता मैं जिस को दे देता उसे तू ही दिखाई देता बा'द मरने के ये बीनाई किसे देता मैं दस्तकें दे के भरी बस्ती के दरवाज़ों पर वो शब-ए-हिज्र जो लौट आई किसे देता मैं मैं कि इज़्ज़त के एवज़ जिस को उठा लाया था तेरे कूचे की वो रुस्वाई किसे देता मैं