ये किस मक़ाम से आख़िर पलट गया है तू मिरे हबीब बता किस जगह छुपा है तू हयात आ के यहाँ पर ठहरने वाली है किसी के पाँव की आहट पे बोलता है तू जहाँ भी शाम हुई मुझ को तेरी याद आई शब-ए-फ़िराक़ में सुन आख़िरी दुआ है तू गुज़रता वक़्त कहाँ ख़ुद को भी छुपा पाया ज़माना जिस में अयाँ है वो आईना है तू किसी ने देखा कहाँ वस्ल की घड़ी का मिज़ाज हमारी जाँ पे बनी और हँस रहा है तू किताब-ए-क़ल्ब पे सूद-ओ-ज़ियाँ की बात न लिख सवाद-ए-दर्द है तू दर्द-ए-ला-दवा है तू कभी जलाए मुझे और पार उतारे कभी मिरा ख़ुदा भी है और नाख़ुदा है तू तिरे सिवा मिरे ज़ख़्मों का इंदिमाल नहीं मिरी ख़ुशी से मिरे ग़म से आश्ना है तू ज़माने गुज़रे तो 'ईरज' ने भी यही समझा कि इब्तिदा से जुड़ी मेरी इंतिहा है तू