ये किस मुहिम पर चले थे हम जिस में रास्ते पुर-ख़तर न आए हमें नवाज़ा न वहशतों ने हमें जुनूँ के हुनर न आए मुझे बहुत तेज़ धूप दरकार है मोहब्बत के इस सफ़र में कभी कहीं सर पे साया करने कोई घनेरा शजर न आए अँधेरी शब का ये ख़्वाब-मंज़र मुझे उजालों से भर रहा है तो रात इतनी तवील हो जाए ता-क़यामत सहर न आए जहाँ हों तेरी ही रौनक़ें और तिरे नज़ारे ही चारों जानिब उस अंजुमन का पता बता दे जहाँ से मेरी ख़बर न आए जो लौट आए कोई सफ़र से तो फिर मुसाफ़िर कहाँ रहा वो वही मुसाफ़िर है जो सफ़र में है और कभी लौट कर न आए वो आसमानों में रहने वाला सुनेगा इक दिन तिरी 'अलीना' सदा को अपनी बुलंद रख तू दुआ में जब तक असर न आए