ये क्यों कहूँ कि उन्हें हाल-ए-दिल सुना न सका नज़र में था वो फ़साना जो लब तक आ न सका मुझे कभी ख़लिश-ए-दिल का लुत्फ़ आ न सका नज़र उठी भी तो उन से नज़र मिला न सका गुनाहगार-ए-मोहब्बत को सब ने बख़्श दिया कि ये गुनाह किसी की समझ में आ न सका मिरे ख़याल में तख़्लीक़-ए-दिल का राज़ ये है कि इश्क़ वुसअ'त-ए-कौनैन में समा न सका तिरी तलाश में निकला है देखते क्या हो वो बद-नसीब जो अपना सुराग़ पा न सका वही नज़र है वही दिल वही तमन्नाएँ जहान-ए-इश्क़ को ख़ुद इश्क़ भी मिटा न सका वही फ़साना-ए-दिल है वही हिकायत-ए-शौक़ जिसे वो सुन न सके और मैं सुना न सका बड़ी कशिश है तिरे संग-ए-दर में मेरे लिए सर-ए-नियाज़ उठाया तो दिल उठा न सका ये दिल है और ये जान-ए-हज़ीं क़ुसूर मुआ'फ़ तिरी नज़र का तक़ाज़ा समझ में आ न सका मुझे तो हश्र तक उस की नजात में शक है गुनाह-ए-इश्क़ जिसे आदमी बना न सका ये इश्क़ है कि जुनूँ इज़्तिराब है कि सुकूँ मैं दिल को भूल गया दिल तुझे भुला न सका यक़ीन था शब-ए-वा'दा ज़रूर आओगे तुम सहर तक एक सितारा भी झिलमिला न सका तिरा करम कि मुझे सोज़-ए-ज़िंदगी बख़्शा मिरी ख़ता कि उसे ज़िंदगी बना न सका फ़रेब-ए-इश्क़ ने आँखें सी खोल दीं 'शाहिद' मैं उस के बा'द किसी का फ़रेब खा न सका