ये महल और ये मीनार कहाँ रुकती है ग़म की बरसात में दीवार कहाँ रुकती है जंग में हौसला होना भी ज़रूरी है बहुत काँपते हाथ में तलवार कहाँ रुकती है मुफ़लिसी सब्र ही करती है फ़क़त क़िस्मत पर ऐ अमीरी तिरी रफ़्तार कहाँ रुकती है हम ने देखा है अज़ल ही से ये दस्तूर यहाँ ज़ुल्म ढाती है तो सरकार कहाँ रुकती है झूट को सच भले कितना ही बनाओ लेकिन घुंघरुओं की कभी झंकार कहाँ रुकती है एक समुंदर ही तो रखता है वफ़ा की अज़्मत वर्ना दरिया में ये पतवार कहाँ रुकती है मुझ को मालूम है 'रौनक़' मैं ग़लत हूँ फिर भी आइने से मिरी तकरार कहाँ रुकती है