ये मय-ख़ाना बरा-ए-मय-कशाँ होता तो क्या होता उन्हीं के वास्ते पीर-ए-मुग़ाँ होता तो क्या होता लुटा दी दौलत-ए-होश-ओ-ख़िरद तो मुद्दआ पाया हमें अंदेशा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ होता तो क्या होता हमें तो आज़माया तुम ने और साबित-क़दम पाया रक़ीब-ए-रू-सियह का इम्तिहाँ होता तो क्या होता सरापा ज़ीनत-ए-बज़्म-ए-रक़ीबाँ बन के बैठे हो कभी ऐसा बरा-ए-स्ताँ होता तो क्या होता न 'क़ैसर' है न 'कैफ़ी' है न 'आसी' है न 'शाएक' है कोई अब शाइ'र-ए-शो'ला-बयाँ होता तो क्या होता बिसात-ए-आशियाँ क्या बर्क़ ये तो चार तिनके हैं तिरी ज़द में प सारा गुलिस्ताँ होता तो क्या होता