ये मैं ने माना कि पहरा है सख़्त रातों का यहीं से निकलेगा फिर क़ाफ़िला चराग़ों का यूँ ख़ुशबुओं में डुबोए हुए रखूँ कब तक गुनाह क्यूँ न मैं कर लूँ क़ुबूल हाथों का चराग़-पा है मिरी नींद इन दिनों मुझ से मैं कोई शहर बसाने लगा था ख़्वाबों का हिरन सी चौकड़ी भरने लगेगी हर धड़कन जो ज़िक्र छेड़ दूँ उस की ग़ज़ाल आँखों का ख़ुमार ओ कैफ़-ओ-सुरूर-ओ-नशात का आलम मैं क़र्ज़-दार बहुत हूँ तुम्हारी बाहोँ का ऐ दिन तू रौशनी दे कर के इस के बदले में हिसाब माँग न मुझ से सियाह रातों का बदन-सराए में ठहरा हुआ मुसाफ़िर हूँ चुका रहा हूँ किराया मैं चंद साँसों का