ये मंतर भी पुराने जाम-ए-जम भी By Ghazal << और तो कुछ नहीं किया होगा उसे मा'लूम है सब कुछ ... >> ये मंतर भी पुराने जाम-ए-जम भी बहुत देखे हैं ये नक़्श-ए-क़दम भी ये नाटक हो रहे हैं मुद्दतों से कहाँ तक तालियाँ पीटेंगे हम भी नए सज्दे नई हैं सज्दा-गाहें रखे जाएँगे बोसीदा सनम भी अभी पर्दे उठेंगे देख लेना नज़र आएँगे पस-मंज़र में हम भी Share on: