ये मत भुला कि यहाँ जिस क़दर उजाले हैं ये आदमी ने अंधेरों से ही निकाले हैं न पूछ क्यूँ है ये रंग-ए-ग़ज़ल में तब्दीली ये देख सीना-ए-शाइ'र में कितने छाले हैं लिबास-ए-सब्र-ओ-तहम्मुल जो हम हैं पहने हुए अब इस के लगता है बख़िये उधड़ने वाले हैं तवक़्क़ुआ'त वही आज भी हैं यारों से कि अब भी यार सभी आस्तीन वाले हैं ख़मोश काँपते मोहरे लरज़ रहा है बिसात न जाने कौन सी वो चाल चलने वाले हैं ये क्या सितम है कि उन को भी मैं बड़ा लिक्खूँ जो लोग आज बड़े कारोबार वाले हैं ख़ुदा करे कि 'सआदत' तुम्हें सुझाई दें जो मेरे शे'रों में मफ़्हूम के उजाले हैं