ये मेरा मज़ाक़-ए-मोहब्बत नहीं है मैं कैसे कहूँ ग़म में राहत नहीं है ये क्या कह गया उजलत-ए-अर्ज़-ए-ग़म में मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है मोहब्बत समझ की हदों से है बाहर समझ में जो आए मोहब्बत नहीं है पशेमानियाँ हैं फ़ुसूँ-कारियाँ हैं इन आँखों में सब है मुरव्वत नहीं है ग़म-ए-दिल कहा तुम से अपना समझ कर शिकायत न समझो शिकायत नहीं है समझ लो उसे एक साज़-ए-शिकस्ता कि जिस दिल में दर्द-ए-मोहब्बत नहीं है न छलके तिरा अक्स-ए-तस्वीर जिन में उन अश्कों से दामन की ज़ीनत नहीं है उन्हें 'शौक़' अपना ग़म-ए-दिल सुना दे कोई और राहत की सूरत नहीं है