ये मेरी आहों में आँच कैसी ये ताव कैसा दहक रहा है ये मेरे अंदर अलाव कैसा ये आग कैसी दिल-ए-हज़ीं में लगी हुई है ये आँसुओं का है जानिब-ए-दिल बहाव कैसा ये कौन हम को फ़लक से पैहम बुला रहा है है इस जहाँ में ये रोज़ का चल-चलाव कैसा मोहब्बतों में रवा नहीं है ये वज़्अ'-दारी बने हो आशिक़ तो इश्क़ में रख-रखाव कैसा जब अश्क आँखों की हद के अंदर ही मौजज़न हैं तो फिर ये आँखों के साहिलों में कटाव कैसा कोई तो है जो मुझे ठहरने को कह गया है सफ़र में 'तासीर' वर्ना ऐसा पड़ाव कैसा