ये मिरी शाम-ए-जुदाई किस बला की शाम है सैकड़ों लाखों बलाएँ इक दिल-ए-नाकाम है दस्त-ए-साक़ी में झलकता साग़र-ए-गुलफ़ाम है जाने क़िस्मत का सिकंदर कौन तिश्ना-काम है इख़्तिताम-ए-रोग़न-ए-हस्ती का ये अंजाम है लौ चराग़-ए-ज़िंदगी की लर्ज़ा-बर-अंदाम है मेरे लाशे पर अज़ीज़-ओ-आश्ना रोते हैं क्यों अब मुझे तकलीफ़ क्या आराम ही आराम है बेकसी ने मेरी बालीं पर दम-ए-आख़िर कहा जितनी सुब्हें हो चुकी हैं होती सब की शाम है पाँव थक जाएँ बला से शौक़ थकने का नहीं मंज़िल-ए-मक़्सूद लाखों कोस भी दो गाम है लड़खड़ा कर गिर पड़ा हूँ आ के मंज़िल के क़रीब तुम कहाँ बैठे हो आओ अब तुम्हारा काम है अच्छी सूरत को न जाने क्यों बुरा कहते हैं लोग हुस्न-ए-बेचारा तो 'नश्तर' मुफ़्त में बदनाम है