राहत-ए-जाँ था वही अब दुश्मन-ए-जाँ हो गया ज़र्फ़-ए-मरहम अपनी क़िस्मत से नमक-दाँ हो गया ज़िंदगी पर बस नहीं है मौत पर क़ाबू नहीं बस इन्हीं मजबूरियों का नाम इंसाँ हो गया ख़ून की छींटों से वहशी ने खिलाए इतने गुल इक चमन छोटा सा बर-दीवार ज़िंदाँ हो गया ख़ून का दावा तो कैसा और उल्टा हश्र में कट गया मैं जब मिरा क़ातिल पशेमाँ हो गया हटिए हटिए नग़्मा-ए-हस्ती से लौ उठने लगी बचिए बचिए मेरे जल बुझने का सामाँ हो गया ज़ब्त की दुनिया डुबो दी एक आँसू ने मिरे बूँद-भर पानी बढ़ा इतना कि तूफ़ाँ हो गया अश्क-ए-ख़ूनी ने मिरे 'नश्तर' वो कीं गुलकारियाँ मेरा दामन एक छोटा सा गुलिस्ताँ हो गया