ये मो'जिज़ा भी मुक़द्दर मुझे दिखाए कहीं वो अब के आए तो जाने की रह न पाए कहीं छुपा छुपा के रखा मैं ने जिस को ख़ुद से भी वो तेरा ज़िक्र किताबों में अब न आए कहीं हुई है उम्र निभाते हुए तिरे ग़म से ये हौसला भी मगर अब न मात खाए कहीं अजीब जश्न-ए-बहाराँ है बाग़ सब उजड़े मकान तब ये गुलों से गए सजाए कहीं तमाम फ़स्ल करूँ नज़्र अब्र की 'आसिम' जो बारिशों में मिरा खेत भी नहाए कहीं