ये मुमकिन है कि यूँ हम ने तुम्हें अक्सर रुलाया हो मगर ये भी तो है तुम ने हमें अक्सर सताया हो बिगड़ती बात है जब जब मुझे यूँ कोसती हो तुम कि जैसे ज़िंदगी का हर सितम मुझ से ही पाया हो हर इक गोली तमंचे से निकल कर सोचती होगी अगर लेनी ही हैं जानें तो क्यों अपना पराया हो हमारे क़ब्र पर अक्सर सुलगती धूप रहती है जो ज़िंदा थे तो चाहा था तिरी ज़ुल्फ़ों का साया हो तिरी आँखों की वुसअ'त में भरी हो कहकशाँ शायद तिरी नाज़ुक सी पलकों ने फ़लक शायद उठाया हो हमारी ख़ाक उड़ कर शाख़ से करती है सरगोशी उठा लो फूल ये शायद हवा ने ही गिराया हो मुलाक़ातें तो होती हैं मगर पूरी नहीं होती कि जैसे नींद में गहरी अधूरा ख़्वाब आया हो हुई है आज बे-पर्दा तिरी ये बे-रुख़ी कुछ यूँ मिरे हालात ने रुख़ से तिरे पर्दा हटाया हो लिपट कर आग से देखो 'अलख़' की लाश जलती है किसी हमदर्द ने आ कर जो सीने से लगाया हो