और इक शहर है क्या शहर-ए-गुमाँ से आगे हम को जाना है बहुत दूर यहाँ से आगे गर्दिश-ए-पा किसी मंज़िल पे ठहरती ही नहीं दिल मगर बढ़ता नहीं कू-ए-बुताँ से आगे गूँजती रहती हैं साहिल की सदाएँ हर-दम हम ने देखा ही नहीं मौज-ए-रवाँ से आगे मुद्दआ' अपना किसी शख़्स पे ज़ाहिर न हुआ कोई जाता ही नहीं तर्ज़-ए-बयाँ से आगे ज़ख़्म क़ाएल हों भला चारागरी के कैसे सफ़-ए-दुश्मन है सफ़-ए-चारा-गराँ से आगे बे-सबब हम से ख़फ़ा हो गई दुनिया 'आलम' हम ने लिक्खा है कहाँ क़िस्सा-ए-जाँ से आगे