ये मुश्त-ए-ख़ाक मुझ को इक जहाँ मालूम होती है जो गर्द-ए-कारवाँ है कारवाँ मालूम होती है मुझे चश्म-ए-सितम जब मेहरबाँ मालूम होती है तो सारी दुनिया अपनी हम-इनाँ मालूम होती है अगर समझे तो कुछ सय्याद उस की आरज़ू समझे जिसे बिजली ही ज़ेब-ए-आशियाँ मालूम होती है भर आया दिल तराने बुलबुल-ए-नाशाद के सुन कर कहानी ग़म की नग़्मों में निहाँ मालूम होती है कली का मुस्कुराना दामन-ए-गुलचीं को दावत है मिरी हर आरज़ू क्यों गुल्सिताँ मालूम होती है मोहब्बत का फ़साना क्या बस इक हर्फ़-ए-तमन्ना है ज़रा सी बात है और दास्ताँ मालूम होती है मिरा मुँह देखते हैं दम-ब-ख़ुद हैं साग़र-ओ-मीना तिरी महफ़िल की हर शय राज़दाँ मालूम होती है