वही जो थे संग-ए-मील कल तक वो जौहड़ों में पड़े हुए हैं जो बे-निशाँ थे क़दम क़दम पर निशान उन के गड़े हुए हैं न सिर्फ़ फल बल्कि फूल-पत्ते भी खा गए भूके चील कव्वे कभी जो सरसब्ज़-ओ-बार-आवर थे नख़्ल नंगे खड़े हुए हैं गुल-ए-सदाक़त की उन को ख़ुशबू पसंद आई न आ सकेगी ग़ुरूर-ओ-पिंदार की ख़ुदी से दिमाग़ उन के सड़े हुए हैं अवाम हैं लाख ढोर डंगर कभी तो इन को भी घास डालें इन्हीं हक़ीरों की अज़्मतों से हुज़ूर इतने बड़े हुए हैं मुहाफ़िज़ों का अगर चले बस तो अर्ज़-ए-पाक आज बेच डालें मगर करें क्या कि हम से ग़द्दार दरमियाँ में अड़े हुए हैं