ये मुश्त-ए-ख़ाक अपने को जहाँ चाहे तहाँ ले जा पर इस आलम को इस आलम से मत बार-ए-गराँ ले जा अदम से जिस तरह तन्हा चला आया था फिर वाँ को मुनासिब है इसी सूरत से सूरत छोड़ जाँ ले जा कुदूरत मा-सिवा की धो ले ख़ातिर-ख़्वाह ख़ातिर से ब-जुज़ नाम-ए-ख़ुदा हमराह मत नाम-ओ-निशाँ ले जा अज़ीज़-ओ-अक़रिबा ने माल-ओ-मिल्किय्यत ब-कार आवे किसी की दोस्ती की ऐ दिला हसरत न वाँ ले जा गदाई बादशाही भी मसावी वक़्त मरने के तयक़्क़ुन कर सुख़न मेरी पर हरगिज़ मत गुमाँ ले जा इसी दुनिया में दुनिया से किनारा कर जो आक़िल है मोहब्बत फिर किसी शय की न साथ ऐ मेहरबाँ ले जा न कोई ले गया कुछ और न ले जावे कोई हरगिज़ यक़ीं गोर-ओ-कफ़न मिलने पे क्या तश्कीक हाँ ले जा गई बाग़-ए-जहाँ से ख़ल्क़ ख़ाली हाथ ले पर तू बहार-ए-ज़िंदगी से ज़िक्र का गुल बे-ख़िज़ाँ ले जा बखेड़ा याँ का याँ पर छोड़ 'अफ़रीदी' अदम आख़िर न ये दर्द-ओ-बला रंज-ओ-अलम आह-ओ-फ़ुग़ाँ ले जा