ये न समझो कि चराग़ों से निकल जाएँगे हम उजाले हैं नई सुब्ह में ढल जाएँगे यूँ न बैठा करो फ़ुटपाथ पे मेरे यारो लोग गुज़रेंगे तो पैरों से कुचल जाएँगे इतना बरहम न हो इक अक्स मुकम्मल कर के हम तिरे आइना-ख़ाने से निकल जाएँगे चाँद हो फूल हों या खिलते हुए साए हों तेरे दीवाने किसी तरह बहल जाएँगे ऐ मिरी चश्म-ए-हज़ीं गिर्या-ए-पैहम मत कर इतना रोने से तो पत्थर भी पिघल जाएँगे मुझ से क्या पूछते हो अश्कों की क़ीमत क्या है ये दिए वो हैं हवाओं में भी जल जाएँगे इतने लर्ज़ां भी नहीं शाख़ से टूटे हुए हम गिरते गिरते भी कहीं जा के सँभल जाएँगे ये हसीं लम्हे जिन्हें थामे हुए हो 'एहसान' इक न इक दिन तिरे हाथों से फिसल जाएँगे