ये नादाँ ज़ेहन है जो सोचता है ख़ला में क्या कहें सौत-ओ-सदा है क़लम ने जो भी काग़ज़ पर लिखा है मिरे अफ़्कार का वो आइना है इक ऐसा भी है पानी का परिंदा तह-ए-क़ुल्ज़ुम पे जिस का घोंसला है फ़रिश्तों की पढ़ो तो हस्त रेखा दवाम उन के मुक़द्दर में लिखा है उतारेंगे कभी तौक़-ए-ग़ुलामी हवाओं का फ़ज़ाओं ने कहा है ज़मीं को अब नहीं पहली सी हरकत क़मर भी दूर होता जा रहा है वही नाज़िल हुई है आसमाँ से कि हर बच्चा जहाँ का देवता है तमाम असरार खोलेगा वो अपने गगन धरती की जानिब चल पड़ा है रवाबित इस के बे-मा'नी हैं सारे ज़मान-ए-हाल से जो कट गया है मुक़य्यद ही रहा हूँ घर में अपने युगों से सिलसिला ये चल रहा है जहाँ को तंग-बीनी का ये तोहफ़ा फ़लक की वुसअ'तों से क्या मिला है 'फ़िगार' इक पैकर-ए-हिल्म-ओ-तहम्मुल बना कर सब के घर में रख दिया है