ये नक़्श ऐसा नहीं है जिसे मिटाऊँ मैं मुझे बता कि तुझे कैसे भूल जाऊँ मैं कोई लकीर ही रौशन नहीं हथेली पर नजूमियों को भला हाथ क्या दिखाऊँ मैं बुझा बुझा सा नज़र आ रहा है हर कोई फ़साना-ए-ग़म-ए-हस्ती किसे सुनाऊँ मैं यक़ीं करो कि मिरी जीत फिर यक़ीनी है मगर कहो तो ये बाज़ी भी हार जाऊँ मैं नज़र के सामने मंज़िल के रास्ते हैं बहुत ये सोचता हूँ क़दम किस तरफ़ बढ़ाऊँ मैं ये बात सच है कि बुनियाद हूँ इमारत की ये और बात किसी को नज़र न आऊँ मैं ग़म-ए-ज़माना से फ़ुर्सत कहाँ 'असर-साहब' दुआ को हाथ जो अपने लिए उठाऊँ मैं