ये नक़्श हम जो सर-ए-लौह-ए-जाँ बनाते हैं कोई बनाता है हम ख़ुद कहाँ बनाते हैं ये सुर ये ताल ये लय कुछ नहीं ब-जुज़ तौफ़ीक़ तो फिर ये क्या है कि हम अर्मुग़ाँ बनाते हैं समुंदर उस का हवा उस की आसमाँ उस का वो जिस के इज़्न से हम कश्तियाँ बनाते हैं ज़मीं की धूप ज़माने की धूप ज़ेहन की धूप हम ऐसी धूप में भी साएबाँ बनाते हैं ख़ुद अपनी ख़ाक से करते हैं मौज-ए-नूर कशीद फिर उस से एक नई कहकशाँ बनाते हैं कहानी जब नज़र आती है ख़त्म होती हुई वहीं से एक नई दास्ताँ बनाते हैं खुली फ़ज़ा में ख़ुश-आवाज़ ताएरों के हुजूम मगर वो लोग जो तीर ओ सिनाँ बनाते हैं पलट के आए ग़रीब-उल-वतन पलटना था ये देखना है कि अब घर कहाँ बनाते हैं