ये नया ज़ुल्म नई तर्ज़-ए-जफ़ा है कि नहीं वो बुरा कह के ये कहते हैं सुना है कि नहीं जी में आता है कि देखूँ कभी सर फोड़ के मैं वस्ल उन का मिरी क़िस्मत में लिखा है कि नहीं हम इसी फ़िक्र में बे-मौत मरे जाते हैं उन के हाथों से हमारी भी क़ज़ा है कि नहीं लो मिरे ज़िक्र-ए-मोहब्बत पे ये इरशाद हुआ क़ैस ओ फ़रहाद का अंजाम सुना है कि नहीं सुन के अशआर यही 'नूह' से वो पूछते हैं तुझ में कुछ और सिफ़त इस के सिवा है कि नहीं