ये रात ढलते ढलते रख गई जवाब के लिए कि तेरी आँखें जागती हैं किस के ख़्वाब के लिए किताब दिल पे लिखने की इजाज़त उस ने दी न थी है सादा आज भी वरक़ ये इंतिसाब के लिए मिरी नज़र में आ गया है जब से इक सहीफ़ा-रुख़ कशिश रही न दिल में अब किसी किताब के लिए हमारी महज़र-ए-अमल है ज़ेर-ए-फ़ैसला अभी खड़े हैं सर झुकाए कब से एहतिसाब के लिए पुराने पड़ चुके कभी के सब तरीक़ा-ए-सितम ख़राबी और चाहिए दिल-ए-ख़राब के लिए समझ रहे हैं सब यहाँ है ज़िंदगी अज़ाब-ए-जाँ मगर ये भाग-दौड़ है इसी अज़ाब के लिए तमाम जिस्म ज़ख़्मों से गुलाब-ज़ार हो गया तो लड़ रहे हैं 'अंजुम' अब ये किस गुलाब के लिए